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कविता

आदमी बनने के क्रम में

मिथिलेश कुमार राय


पिता मुझे रोज पीटते थे
गरियाते थे
कहते थे कि साले
राधेश्याम का बेटा दिपवा
पढ़ लिखकर बाबू बन गया
और चंदनमा अफसर
और तू ढोर हाँकने चल देता है
हँसिया लेकर गेहूँ काटने बैठ जाता है
कान खोलकर सुन ले
आदमी बन जा
नहीं तो खाल खींचकर भूसा भर दूँगा
ओर बाँस की फूनगी पर टाँग दूँगा...

हालाँकि पिता की खुशी
मेरे लिए सबसे बड़ी बात थी
लेकिन मैं बच्चा था और सोचता था
कि पिता मुझे अपना सा करते देखकर
गर्व से फूल जाते होंगे
लेकिन वे मुझे दीपक और चंदन की तरह का आदमी बनाना चाहते थे

आदमियों की तरह सारी हरकतें करते पिता
क्या अपने आप को आदमी नहीं समझते थे
आदमी बनने के क्रम में
मैं यह सोच कर उलझ जाता हूँ


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